देव प्रतिमा निरूपण नियम
देव प्रतिमा निरूपण नियम
देवताओं की प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसङ्ग-क्रम में प्रतिमा निर्माण और उनके अङ्गभूत निर्माण की विधि नियम निम्न प्रकार निर्दिष्ट हैं –
- देव-प्रतिमा सुवर्ण, चाँदी, ताँबा, रत्न, पत्थर, देवदारु, लोहा-सीसा, पीतल, ताँबा और काँस मिश्रित अथवा शुभ काष्ठों की बनी हुई प्रशस्त मानी गयी है। गृहस्थों के घरोंमें अंगूठे के एक पर्व से लेकर एक बीते प्रमाण मात्र ही प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये, क्योंकि विद्वानों ने इससे बड़ी को गृहस्थके लिये प्रशस्त नहीं माना है। किंतु देवमन्दिरों में सोलह बीते तक की प्रतिमा प्रतिष्ठित की जा सकती है, पर उससे बड़ी वहाँ भी नहीं। इन प्रतिमाओं को अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ कोटि की बनानी चाहिये। मन्दिरके प्रवेश द्वार की जो ऊँचाई हो उसे आठ भागों में विभक्त कर दे। उसमें एक भाग छोड़कर शेष दो भागों से प्रतिमा बनवाये। फिर उन दो भागों की संख्या को तीन भागोंमें विभक्त कर दे। उसके एक भाग के बराबर पीठिका बनाये। वह न बहुत ऊँची हो, न बहुत नीची। फिर प्रतिमा के मुखमान को नौ भागों में विभक्त करे। उसमें चार अङ्गुलमें ग्रीवा तथा एक भाग के द्वारा हृदय होना चाहिये। उसके नीचेके एक भाग में सुन्दर नाभि बनानी चाहिये। वह गहराई और विस्तारमें एक अंगुल की कही गयी है। नाभिके नीचे एक भाग में लिंग, दो भागों में विस्तृत ऊरु, चार अंगुलमें घुटने, दो भाग से जंघे और चार अंगुल के पैर हों। उसी प्रकार मूर्ति का सिर चौदह अंगुल का बनाना चाहिये।
- प्रतिमा के ललाट की मोटाई चार अंगुल, नासिका की चार अंगुल, दाढ़ी की दो अंगुल और ओठ की भी दो अंगुल जाननी चाहिये। यदि ललाट का विस्तार आठ अंगुल हो तो उतने में ही दोनों भौहों को भी बनानी चाहिये। भौंहों की रेखा आधे अंगुल की हो। वह बीच में धनुषाकार हो। दोनों छोरों पर उसके अग्रभाग उठे हुए हों, बनावट चिकनी तथा सुन्दर होनी चाहिये। आँखों की लम्बाई दो अंगुल, चौड़ाई एक अंगुल, उनके मध्य भाग में ऊँची रक्ताभ एवं शुभ लक्षणोंसे युक्त पुतलियाँ होनी चाहिये। तारका के आधे भाग से पाँचगुनी दृष्टि बनानी चाहिये। दोनों भौंहों के मध्य में दो अंगुल का अन्तर रखना चाहिये, नासिका का मूलभाग एक अंगुल में रहे। इसी प्रकार नीचे की ओर झुकी हुई नासिका के अग्रभाग एवं दोनों पुटोंको बनाना चाहिये। नासिका के पुटों के छिद्र आधे अंगुल के बताये गये हैं। कपोल दो अंगुल के हों जो कानों के मूल भाग तक विस्तृत हों। ठुड्डी का अग्रभाग एक अंगुल में तथा विस्तार दो अंगुल में होना चाहिये। आधे अंगुल में भौंहों की रेखा होनी चाहिये, जो प्रणालीके समान हो। नीचे तथा ऊपरके ओठ आधे-आधे अंगुलके हों। उसी प्रकार नासिका के दोनों पुट निष्पाव (सेम के बीज) के तुल्य माप के बनाये जायँ। ओठ के बगल में मुख का कोना और नेत्र ज्योति दोनों समान आकार के हों और कान के मूल से छ: अंगुल दूर पर बनावे। दोनों कानों की बनावट भौंहों के समान हो और उनकी ऊँचाई चार अंगुल की हो। कानों के पार्श्वभाग दो अंगुल के हों और उनका विस्तार एक अंगुल मात्र का हो। दोनों कानों के ऊपर मस्तक का विस्तार बारह अंगुल का होना चाहिये।
- ललाट के पीछे का आधा भाग अठारह अंगुल का कहा गया है और इसके मस्तक तक का विस्तार छत्तीस अंगुल होता है। केश-समूह का विस्तार बयालीस अंगुल का होता है। केशों के अन्तर्भाग से दाढ़ी तक का विस्तार सोलह अंगुल का होता है। दोनों कंधों का विस्तार चौबीस अंगुल का हो। ग्रीवा की मोटाई आठ अंगुल की उत्तम मानी गयी है। ब्रह्मा ने स्तन और ग्रीवा का मध्य भाग एक ताल के बराबर बताया है। दोनों स्तनों में बारह अंगुल का अन्तर माना जाता है। स्तनों के मण्डल दो अंगुल कहे गये हैं। दोनों चूचुक उस मण्डल के भीतर यव के बराबर बताये जाते हैं। वक्षःस्थल की चौड़ाई दो ताल कही गयी है। दोनों कक्ष बाहु (भुजा) और स्तन के मध्य में छः अंगुल के होने चाहिये। दोनों पैर चौदह अंगुल तथा उनके अंगूठे तीन अंगुल हों। अँगूठे का अग्रभाग उन्नत होना चाहिये और उसका विस्तार पाँच अंगुल का हो। उसी प्रकार अँगूठे के समान ही प्रदेशिनी अंगुली को भी लम्बी बनाना चाहिये। उससे सोलहवें अंश से अधिक मध्यमा अंगुली हो, अनामिका मध्यमा अंगुली की अपेक्षा आठवाँ भाग न्यून हो और अनामिका से आठवें भागमें न्यून कनिष्ठिका हो। इन दोनों अंगुलियों में तीन पर्व बनाने चाहिये। पैरों की गाँठ दो अंगुल की मानी गयी है। दोनों एड़ियाँ दो-दो अंगुल में रहनी चाहिये, किंतु गाँठ की अपेक्षा इसमें एक कला अधिक रहे। अंगूठे में दो पोर बनने चाहिये, उसका विस्तार दो अंगुलका हो। प्रदेशिनी का विस्तार तीन अंगुल का बताया गया है। कनिष्ठिका क्रमश: आठवें भाग से कम रहे। विशेषतया अँगूठे की मोटाई एक अंगुलकी हो। शेष अंगुलियों की मोटाई उसके आधे भाग के तुल्य रखनी चाहिए
- जाँघ के आगे के भाग चौदह अंगुल और मध्यभाग अठारह अंगुल रहे। घुटनेका मध्यभाग इक्कीस अंगुलका हो। घुटने की ऊँचाई एक अंगुल तथा मण्डल तीन अंगुल विस्तृत हो। ऊरुओं का मध्य भाग अट्ठाईस अंगुल हो। इसके एक तीस अंगुल ऊपर अण्डकोश तीन अंगुल और लिंग दो अंगुल हो तथा उसका विस्तार छ: अंगुल हो। मणिबन्ध से नीचे केशों की रेखा रखनी चाहिये। मणिकोश का विस्तार चार अंगुलका हो। कटिप्रदेशका विस्तार अठारह अंगुल हो। स्त्रियोंकी मूर्ति में कटिका विस्तार बाईस अंगुलका तथा स्तनों का बारह अंगुल होना चाहिये। नाभिका मध्यभाग बयालीस अंगुलका होना चाहिये। पुरुष के कटिप्रदेश पचपन अंगुल तथा दोनों कक्षों के ऊपर छ: अंगुल के स्कन्धों के बनाने की विधि है। आठ अंगुल के विस्तार में ग्रीवा का निर्माण कहा गया है और इसकी लम्बाई बारह कला की होनी चाहिये ।
- दोनों भुजाओं की लम्बाई बयालीस अंगुल हो। बाहु के मूल भाग सोलह अंगुल के होने चाहिये। बाहु के ऊपरी अंश तक अठारह अंगुल होना चाहिये। दूसरा पर्व (पोर) इसकी अपेक्षा एक अंगुल कम कहा गया है। बाहु के मध्य भाग का विस्तार अठारह अंगुल तथा नीचे का हाथ (कर तल के पूर्व तक) सोलह अंगुल का कहा गया है। हाथ के अग्रभाग का मान छ: कला का माना गया है। हथेली का विस्तार सात अंगुल हो और उसमें पाँच अंगुलियाँ बनी हों। अनामिका अंगुली मध्यमा की अपेक्षा सप्तमांश कम रहती है। कनिष्ठा उससे भी पञ्चमांश न्यून तथा मध्यमा के पाँचवें भाग से न्यून तर्जनी होनी चाहिये। अँगूठा तर्जनी के उद्गम से नीचा होना चाहिये, किंतु लम्बाई में उतना ही होना चाहिये। अंगूठे का विस्तार चार अंगुल का जानना चाहिये। शेष अंगुलियों के विस्तार क्रमशः एक-एक भाग से न्यून होते हैं। मध्यमा अंगुली के पोरों के मध्य भाग में दो अंगुल का अन्तर रहना चाहिये। इसी प्रकार अन्य अंगुलियों के पोरों में एक-एक यव की कमी होती जाती है। अंगूठे के पोरों का मध्य भाग तर्जनी के समान ही रहना चाहिये। अगला पोर दो यव से अधिक कहा गया है। अंगुलियों के पर्वार्ध में नखों को चिकना, सुन्दर तथा आगे की ओर कुछ लालिमा युक्त बनाना चाहिये। मध्य भाग में पीछे की ओर कुछ नीचा तथा बगल में अंशमात्र ऊँचा बनावे। उसी प्रकार कंधों के ऊपर दस अंगुल में केशों की बल्ली का निर्माण करना चाहिये।
इस प्रकार सभी देवताओं की प्रतिमाओं एवं स्त्री-प्रतिमाओं के निर्माण में नौ ताल का परिमाण बतलाया गया है, जो समस्त पापों को नष्ट करनेवाला कहा गया है।
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे देवार्चानुकीर्तने प्रमाणानुकीर्तनं नामाष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥
स्रोत– मत्स्य पुराण अध्याय 258