अश्वमेघ यज्ञ का क्या अर्थ होता है और इसे किस लिए किया जाता था?
अश्वमेघ यज्ञ का क्या अर्थ होता है और इसे किस लिए किया जाता था?
अश्वमेध यज्ञ को लेकर अनेकों भ्रांतियां हैं, जैसे घोड़े को प्राथमिकता, घोड़े का मांस खाना, राजा की महत्वकांक्षा आदि…लेकिन सच कुछ और ही ही है जो इस आर्टिकल से आप समझ सकेंगे….जानिए विस्तार से और शेयर कीजिए
कुछ लोग केवल इतना ही जानते हैं, कि इस यज्ञ में एक घोड़े की पूजा होती है, घोड़े की पूजा का कोई अर्थ नहीं है।
और कुछ महानुभाव तो ऐसा भी कहते हैं कि यज्ञ के बाद उस घोड़े की बलि दे कर उसका मांस प्रसाद के रूप में बाँट दिया जाता है।ये कपोल कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
कुछ ज्ञानी जन इसे एक राजा की महत्वकांशा से जोड़ कर देखते हैं, कि जहाँ जहाँ ये घोडा जाएगा, वो सभी राज्य उस राजा का अधिपत्य स्वीकार करेंगें, ये गुलामी के अंतरालों से प्रभावित सोच है, कि कोई राजा यदि कोई यज्ञ कर रहा है, तो बस सिर्फ और अधिक शक्ति प्राप्ति के लिए ही कर रहा होगा।
हमारे यहाँ जीवन के चारों आश्रमों, “ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास” का पालन सभी लोग किया करते थे।
सबसे पहले तो ये समझना आवश्यक है कि अश्व का अर्थ केवल घोड़ा नहीं होता है।
अश्व का अर्थ होता है, अमर,
आप सभी शव से तो परिचित ही होंगें, लेकिन आधे श और व् से बनता है श्व, जिसका अर्थ होता है मृत्यु।
श्व का अर्थ मृत्यु, शव का अर्थ मृत।
अश्व बनता है अ + श्व
इसलिए जब अश्वमेघ यज्ञ की बात होती है, तो ये यज्ञ अमरत्व की राह पर जाने के समय, अर्थात अपना राजपाट छोड़ कर संन्यास लेते समय राजाओं द्वारा किया जाता था।
संन्यास का अर्थ होता है, इस जीवन में अर्जित सभी उपलब्धियों को, रिश्ते-नातों, मित्रों और शत्रुओं को भी छोड़ कर केवल एक अनंत की राह पर चलना।
जब एक राजा संन्यास का निर्णय लेता है, तो किसी सामान्य कर्मचारी के समान खड़े पैर त्यागपत्र नहीं दे सकता, उसे सभी से बाकायदा अनुमति लेनी होती थी।
इसलिए अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया जाता था, जिसमें घोड़ा केवल राज (राजा और उसके राज्य) का प्रतीक होता था।
यज्ञ के बाद एक सांकेतिक सेना (मुट्ठी भर सैनिक, जिनका मुख्य कर्तव्य केवल घोड़े की देखभाल होता था) के साथ देश भर में घुमाया जाता था।
पर्याय ये होता था, कि जिस भी व्यक्ति (केवल राजा ही नहीं) को राजा के इस निर्णय से आपत्ति हो, वो इस घोड़े की लगाम पकड़ सकता था।
आम बोलचाल की भाषा में यदि किसी का कोई बकाया हिसाब किताब बाकी हो तो वह चुकता किया जा सकता है।
जैसा कि लव और कुश ने राम के अश्वमेघ के घोड़े को रोक कर किया था।
यहाँ, ऐसी परिस्थिति में राजा का ये दायित्व होता था कि वो आपत्ति कारक के प्रश्नों का तार्किक उत्तर दे कर उसे संतुष्टि प्रदान करे, तत्पश्चात ही वो संन्यास का अधिकारी होता था।
वहीँ जहाँ शत्रु/विरोधी राजा होते थे, वे भी अधिकाँश ऐसे समय में अपनी शत्रुता भुला दिया करते थे। वहां केवल कुछ एक शासक जिन्होंने ये कोई प्रतिज्ञा आदि की होती थी, केवल वही युद्ध करते थे।
इस प्रकार जब घोड़ा सकुशल वापस लौट आता था, तब उस राजा को चक्रवर्ती घोषित किया जाता था।
चक्रवर्ती केवल उसे ही नहीं कहते हैं, जिसने अपने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, जिसका कोई शत्रु ना हो (अर्थात शत्रुता भुला दी गयी हो) उसे भी चक्रवर्ती ही कहा जाता है।
तत्पश्चात श्वेतवस्त्र धारण करके आचार्यों के मार्गदर्शन के मध्य वो राजा किसी भी नदी में अवतरित हो कर प्रतीकात्मक रूप से अपना ये जीवन समाप्त कर लेता था, अर्थात राजा की पहचान समाप्त करके सन्यासी हो जाता था।
अब चूंकि गुलामी के अंतरालों में बलि(बलवान बनाने) का अर्थ जानवर को मारने से लिया जाने लगा है, इसलिए कुछ अधिक बुद्धिमान लोगों ने अपनी ओर से ये कल्पना भी जोड़ दी कि यज्ञ के बाद घोड़े को मार पर पका कर प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।
भारत के कौन से हिस्से में घोड़े का मांस खाया जाता है?
ये तो असुर होते थे जो वायु मार्ग से आकर ऋषि/मुनियों के यज्ञों में मांस/मदिरा डाल देते थे, और ऐसे ही असुरों से ऋषि/मुनियों की रक्षा के लिए ही विश्वामित्र ऋषि बालयकाल से ही राम और लक्ष्मण को अपने साथ ले गए थे।
फिर यज्ञ जैसे पवित्र आयोजन में मांस वितरण बौद्धिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है?
इस प्रकार ये समझिये कि
अश्वमेघ यज्ञ एक राजा द्वारा संन्यास लेने की प्रक्रिया का पहला चरण होता है (था), अपने राज्य को बढ़ाने की महत्वकांशा नहीं।
ये यज्ञ केवल राजा/महाराजा ही करवाया करते थे, वो भी केवल वही जो संन्यास लेना चाहते थे।
घोड़े का उपयोग केवल प्रतीकात्मक है, उसे मारना अथवा खाना हमारी संस्कृति कभी नहीं रही है।